महाराजा अग्रसेन का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। महाराजा अग्रसेन के पिता का नाम राजा कुरु की जीवनी जी था और उनकी माता का नाम महारानी श्रीमती भगवती देवी जी था। उनका विवाह माधवी के साथ हुआ था।
धार्मिक मान्यतानुसार महाराजा अग्रसेन का जन्म सूर्यवंशीय महाराजा
वल्लभ सेन के द्वापर युग के अंत में और कलयुग की शुरुवात में आज से लगभग 5185 साल से पहले
हुआ था। जो की समस्त खांडव प्रस्थ( दिल्ली), बल्लभ गढ़, अग्र जनपद (आगरा) के राजा थे। उन के
राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक
धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि,
सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे। ये बल्लभ गढ़ और आगरा के राजा बल्लभ के
ज्येष्ठ पुत्र, शूरसेन के बड़े भाई थे।
समयानुसार युवावस्था में उन्हें राजा नागराज की कन्या राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में शामिल
होने का न्योता मिला। उस स्वयंवर में दूर-दूर से अनेक राजा और राजकुमार आए थे। यहां तक कि
देवताओं के राजा इंद्र भी राजकुमारी के सौंदर्य के वशीभूत हो वहां पधारे थे। स्वयंवर में
राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन के गले में जयमाला डाल दी। यह दो अलग-अलग संप्रदायों,
जातियों और संस्कृतियों का मेल था। जहां अग्रसेन सूर्यवंशी थे वहीं माधवी नागवंश की कन्या
थीं।
इस विवाह के कारण से इंद्र देव काफी क्रोधित हो गए और आपे से बाहर हो गये। उन्होंने
प्रतापनगर में वर्षा का होना रोक दिया। चारों ओर हाहाकार मच गया। लोग अकाल मृत्यु का ग्रास
बनने लगे। तब महाराज अग्रसेन ने इंद्र के विरुद्ध युद्ध छेड दिया। लेकिन अग्रसेन धर्म-युद्ध
लड रहे थे तो उनका पलडा भारी था जिसे देख देवताओं ने नारद ऋषि को मध्यस्थ बना दोनों के बीच
सम्झौता करवा दिया ।
इसके कुछ समय बाद महाराज अग्रसेन ने अपने प्रजा के लोगों की खुशहाली के लिए काशी नगरी जाकर
शिवजी की घोर तपस्या की, जिससे भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें माँ लक्ष्मी की तपस्या
करने का सुझाव दिया। माँ लक्ष्मी ने परोपकार के लिए की गयी घोर तपस्या से खुश हो उन्हें
दर्शन दिए और कहा कि अपना एक नया राज्य बनाएं और क्षात्र धर्म का पालन करते हुए अपने
राज्यऔर प्रजा का पालन – पोषंण व रक्षा करें , उनका राज्य हमेसा धन -धान्य से पूरी तह से
भरा रहेगा।
अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह एक शेरनी, एक शावक को जन्म देते दिखी, कहते है जन्म लेते ही शावक ने महाराजा अग्रसेन के हाथी को अपनी माँ के लिए संकट समझकर तत्काल हाथी पर छलांग लगा दी। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण या अग्रोदय रखा गया और जिस जगह शावक का जन्म हुआ था उस जगह अग्रोदय की राजधानी अग्रोहा की स्थापना की गई। यह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास स्थित हैं। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए पांचवे धाम के रूप में पूजा जाता है, वर्तमान में अग्रोहा विकास ट्रस्ट ने बहुत सुंदर मन्दिर, धर्मशालाएं आदि बनाकर यहां आने वाले अग्रवाल समाज के लोगो के लिए सुविधायें जुटा दी है।
माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। माता महालक्ष्मी की कृपा से महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य को 18 गणराज्यो में बाँट कर एक विशाल राज्य का निर्माण किया था, जो इनके नाम पर अग्रेय अथवा अग्रोदय कहलाया।। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। यज्ञों में बैठे इन 18 गणाधिपतियों के नाम पर ही अग्रवंश के गोत्रो (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई। उस समय यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य रूप से दी जाती थी।
महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में
अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: –
गोत्रों के नाम
महाराजा अग्रसेन पर अनगिनत पुस्तके लिखी जा चुकी हैं। सुप्रसिद्ध लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र, जो स्वंय भी अग्रवाल समुदाय से थे, उन्होने 1871 में “अग्रवालों की उत्पत्ति” नामक प्रामाणिक ग्रंथ लिखा है। जिसमें विस्तार से उनके जीवन के बारे में बताया गया है।
महाराजा अग्रसेन इस संसार में अमर है.
महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। उन्होंने जिन जीवन मूल्यों को ग्रहण किया उनमें परंपरा तथा प्रयोग का संतुलित सामंजस्य दिखाई देता है। उन्होंने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रथों में क्षत्रिय वर्ण के लिए निर्देशित कर्मक्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता तथा सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए। अपनी जिंदगी के आखिरी पल में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया। आज भी इतिहास में महाराज अग्रसेन परम प्रतापी, धार्मिक, सहिष्णु, समाजवाद के प्रेरक महापुरुष के रूप में जाने जाते हैं। देश में जगह-जगह उनके नाम से अस्पताल, स्कूल, बावड़ी, धर्मशालाएँ आदि बनवाई गई हैं और ये जीवन मूल्य मानव आस्था के प्रतीक हैं।